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भारतीय इतिहास की महान वीरांगनाएँ

भारतीय इतिहास को उठाकर देखें तो यह वीर और वीरागणाओकेअनगिनत त्याग और बलिदान से भरा पड़ा है| इसमें कोई दो राय नहीं है | यहां की पावन भूमि की रक्षा में मनुष्य जाति के साथ-साथ पशु- पक्षियों ने भी अपने प्राणों को न्योछावर किया है | इस पावन भूमि के प्रतियहां के लोगों का समर्पण अतुलनीय है | इसलिए भारत के लोग अपनी मातृभूमि की मिट्टी को उठाकर अपने सिर पर लगाते हैं |

कुछ समय ऐसा भी आया कि यह देश विदेशी आक्रन्ताओंके अधीन हो गया | लेकिन यहां के लोगों ने अपनी मातृभूमि की स्वाधीनता के लिए निरंतर प्रयास जारी रखा तथा इसके लिए उन्हें जो भी कुर्बानी देनी पड़ी, उसके लिए हर समय तैयार रहें| उनमें से एक नाम है – अंग्रेज फौज के दमन का बदला लेने वाली बडोतकीबेटी शिवदेवी तोमर तथा उसकी छोटी बहन जय देवी तोमर |

इन क्षत्राणी वीरांगनाओं ने अंग्रेजी सेना के छक्के छुड़ा दियेऔर क्रांति की प्रचंड ज्वाला को प्रज्वलित कर अपने प्राणों को न्यौछावर कर दिया|

10 मई 18 57 को भारतीय सैनिकों ने मेरठ कैंट में अंग्रेजो के खिलाफ विद्रोह कर दिया | विद्रोह इतना भयानक हुआ कि उसकी आग धीरे-धीरे आसपास केगाँवोतथाकस्बों में फैल गई | जिस कारण बड़ौत केशाहमलसिंह तोमर ने इलाके पर घेरा डाल दिया और आजादी घोषित कर दी | लेकिन 18 जुलाई 18 57 को अंग्रेज फौज ने बडौत पर आक्रमण कर दिया | इसभीषण संग्राम में शाहमलसिंहतोमर वीरगति को प्राप्त हो गए और अंग्रेजी फौज ने बडौतके आसपास के गांवों मेंबुरी तरह लूटपाट की | जिसमें 30 स्वतंत्रता सेनानियों को पकड़कर, पेड़ पर लटका कर फांसी दे दी | इसके साथ-साथ उन्होंने गांव कारशद पानी बंद कर दिया| तथा उनकी संपत्ति और पशुओं पर भी कब्जा कर लिया |

इस भयानक दृश्य को 16 वर्षीय क्षत्राणी  शिव देवी तोमर ने अपनी आंखों से देखा | उसके मन में अंग्रेजी सेना के दमन का प्रतिशोध लेने की भावना जागृत हुई | शिव देवी तोमर ने अपने साथियों के साथ मंत्रणा कर, अंग्रेजी सेना के खिलाफ विद्रोह की रणनीति तैयार की और नौजवानों को इकट्ठा किया |

शिव देवी तोमर ने अपने साथियों के साथ बड़ौत में तैनात अंग्रेजी टुकड़ी पर अचानक बहुत भीषण आक्रमण किया | जिससे अंग्रेज सैनिक भयभीत हो गए, बहुतों को मौत के घाट उतार दिया गया | जिसे अंग्रेजी टुकड़ी बड़ौत से भाग गई | जबकि अंग्रेजी सेना के पास आधुनिक हथियारों से परिपूर्ण थी लेकिन इस भीषण संग्राम में शिवदेवी तोमर घायलहो गई थी |

जब घायल अवस्था में शिवदेवी तोमर का उपचार किया जा रहा था तब अचानक अंग्रेजी फौज ने आकर के गोलियां दागना प्रारंभ कर दिया, जिससे शिवदेवी तोमर वीरगति को प्राप्त हो गई | यह दृश्य उनकी छोटी बहन जय देवी तोमर देख रही थी | उसने अपनी बहन शिवदेवी तोमर की मृत्यु का बदला लेने का प्रण किया | उसे 14 वर्षीय बालिका ने गांव-गांव  जाकर लोगों को ललकारा और उनका दल बनाकरअंग्रेजी सेना का पीछा प्रारंभ कर दिया | आखिरकार यह दल उत्तर प्रदेश के विभिन्न क्षेत्रों से होकर लखनऊ पहुंच गया |

अंततः उन्हें अंग्रेजी सेना की टुकड़ी का पता चल गया और जय देवी तोमर ने अपनी तलवार निकाल कर के अंग्रेज अधिकारी का सर धड़ से अलग कर दिया | तथा जहां पर अंग्रेज सैनिक ठहरे हुए थे उन जगहों पर आग लगा दी गई | इस भीषण संग्राम में जय देवी तोमर भीवीरगति को प्राप्त होगई | इस प्रकार बड़ोतकी दोनों बेटियां नेमातृभूमि की रक्षा में अपने प्राणों को बलिवेदी पर चढ़ा दिया | तथा इतिहास में अपना नाम स्वर्ण अक्षरों में अंकितकरदिया |

भारतीय इतिहास वीरों के साथ-साथ वीरांगनाओं के युद्ध कौशल,वाकपटुता, सौंदर्यतथाअदम्यसहाससे  भरा पड़ा है|इतिहास इस बात का साक्षी है कि जब भी किसी राज्य पर मुसीबत आई तब -तबमहारानियोंनेंभी अपने अदम्य साहस के साथ मुसीबतों का सामना किया है| जैसे– रानी लक्ष्मीबाई, माता जीजाबाई, अहिल्याबाई होलकर आदि| ऐसे ही इतिहास के पन्नों में एक और नाम है – रानी रुदावाई|

रानी रूदाबाई पाटन राज्य से कर्णावती के राजा राणा वीर सिंह वाघेला की पत्नी थी | कर्णावती क्षेत्र वर्तमान में गुजरात में स्थित है| रानी रूदाबाई जोकि अत्यंत सुंदर थी| इसके साथ- साथ वह  युद्ध कौशल में निपुण तथा अदम्य साहस की धनीथी | कर्णावती राज्य पर अनेकों तुर्की हमले हुए | लेकिन कोई भी आक्रांता अपने मकसद में कामयाब नहीं हो पाया | सन 1497 मेसुल्तान बेघाराने 40,000 से अधिक फौज के साथ कर्णावती राज्य पर हमला कर दिया |लेकिन राणा वीर सिंह बघेला की सेना के सामने सुल्तान बेघारा की फौज 2 घंटे भी नहीं रुक पाई| सुल्तान बेघारा को अपनी जान बचाकर भागना पड़ा| सुल्तान बेघारा का कर्णावती राज्य पर आक्रमण का कारण रानीरुदावाई थी| वह रानी की सुंदरता पर मोहित था तथा उसे अपने हरवमें रखना चाहता था|

कुछ समय पश्चात कर्णावती राज्य का एक साहूकार सुल्तान बेघारा से जा मिला और उसे राज्य की सारी गुप्त जानकारियां से अवगत करा दिया | जैसे ही उसे सारी गुप्त जानकारियां प्राप्त हुई तो सुल्तान बेघारानेंकर्णावती क्षेत्र पर आक्रमण कर दिया | इस आक्रमण में राणा वीर सिंह बघेला वीरगति को प्राप्त हो गए|

जैसे ही रानी रुदाबाई को यह सूचना मिली उनके मन को एकदम धक्का सा लगा| लेकिन उन्होंने इस समयस्वयंको संभाला | और 2400 धनुर्धारी वीरांगनाओं की महल के अंदर छावनी बनाई| उन्हें अपने महल के ऊपर शत्रु सेना पर टूट पड़ने के लिए तैयार किया|

इधर रुदावाई ने अपने दूतको सुल्तान बेघारा के पास निकाह प्रस्ताव लेकर भेजा | सुल्तान बेघारावासना में अंधा होकर 10,000 सैनिकों के लश्कर के साथ महल की ओर बढ़ा! जैसे ही रानी रुदावाई ने देखा किसुल्तान बेघारामहल की ओर आगे आ रहा है | उन्होंने सुल्तान बेघाराको अपने महल में आने को कहा और दूसरी तरफ अपनी धनुर्धारी वीरांगनाओं कोलश्कर सेना पर टूट पड़ने का इशारा कर दिया| जैसे ही सुल्तान बेघारारानी रुदाबाई के महल में कदम रखता है|रानी अपना खंजर निकालकर सुल्तान बेघारा के सीने में उतार देती है| उधर धनुर्धारी वीरांगनाओं ने सारी लश्कर सेना कोअपने बाणों से छलनी कर दिया|

सुल्तान बेघारा को मारकर रानी रुदाबाईनें सुल्तान बेघारा के सिर को धड़ से अलग कर पाटन राज्य के बीच टंगवा दिया और चेतावनी देते हुए कहा जो भी पाटन राज्य तथा हिंदू महिला पर बुरी दृष्टि डालेगा,उसका यही हाल होगा|

जब युद्ध समाप्त हो गया तब रानी रुदाबाई ने जल समाधि ले ली| ताकि कोई अन्य पुरुष उन्हें अपवित्र करने की कोशिश ना करें| धन्य है भारत भूमि पर उत्पन्न होने वाली ऐसी वीरांगनायें| जिन्होंने अपनीजानसे पहले अपनीमातृभूमि को चुना तथा उसकी रक्षार्थप्राण उत्सर्गकर दिया| इसलिए सच ही कहा गया है नारी अबला नहीं सबला है, यदि वह करने की ठान ले|

राजस्थान की भूमि वीरों की बलिदानों के लिए इतिहास में सुप्रसिद्ध रही है| इस भूमि को वीरों ने अपने त्याग, बलिदान, रक्त से मरूभूमि को सींचा है| यह बात किसी से अछूती नहीं है! लेकिन वीरों के साथ-साथ वीरांगनाओं के त्याग और बलिदान को हम बिसरा नहीं सकते| इस मरुभूमि में ऐसी अनेक वीरांगनाये हुई है जिन्होंने मातृभूमि के लिए अपने प्राणों की चिंता नहीं करी तथा साथ-साथ अपने पतियों को भी कर्तव्य से विमुख नहीं होने दिया| उनमें एक नाम है – हाड़ी रानी का|

 हाड़ी रानी बूंदी के शासक हाड़ा चौहान की बेटी थी| उसका विवाह मेवाड़ के सलूंबर के सरदार रतन सिंह चुंडावत से हुआ | अभी विवाह को केवल सात दिन भी हुए थे तथा दोनों की अभी हाथों की मेहंदी तथा पैरों की महावर भीकी नहीं पड़ी थी| इधर चुंडावत सरदार अपनी नई- नवेली रानी के मोहपास में बंधे हुए थे | उन्हें हाड़ी रानी से इतना प्रेम था कि वह उन्हें एक पल के लिए अपनें से दूर नहीं देख सकते | दोनों अपनी वैवाहिक जीवन के सुखांत पल व्यतीत कर रहे थे | इतने में महाराज राज सिंह का दूत एक पत्र लेकर सरदार चुंडावत के कक्ष की तरफ  आता है | जब दूत को बाहर खड़ा रानी देखा तो उन्होंने सरदार चुंडावत को आगाह किया और रानी दूसरे कक्ष में चली गई| सरदार चुंडावत ने जैसे ही दूत को बुलाया| उन्हें देख तेजी से ठहाके मारकर हंसने लगे | अरे मित्र शार्दुल सिंह तुम! क्या भाभी ने आज सुबह -2 ही भगा दिया है| शार्दुल सिंह चुप रहे-

 मित्र शार्दुल तुम इतने चुप क्यों हो और ऐसी क्या बात है| शार्दुल सिंह ने महाराज राज सिंह का आदेश सुना दिया की औरंगजेब की सेना तेजी से बढी आ रही है और उसको रोकने के लिए महाराज ने आपको जाने का आदेश दिया है |इस संकट की घड़ी में हमें शीघ्र ही मातृभूमि की रक्षा करनी चाहिए! सरदार चुंडावत ने कहा कि क्षत्राणी  अपने पुत्रों को इस दिन के लिए तो जनती है| लेकिन उनके मन में एक प्रश्न नें अभी खलबली मचा रखी थी कि युद्ध का क्या परिणाम होगा और रानी हाडी से वह कैसे दूर हो पाएंगे, कहीं रानी उनको भूल न जाये |

 अब समय आ गया है कि उन्होंने हाड़ी रानी से युद्ध के लिए विदा लेनी चाही| हाड़ी रानी को जब यह पता चला तो उन्हें एकदम सदमा सा लगा और उन्होंने अपने आप को संभाल कर पति को युद्ध के लिए प्रेरित किया| विजय की कामना के साथ युद्ध करने की बधाई दी|

 इधर चुंडावत सरदार अपनी सेना को लेकर युद्ध के लिए निकल पड़ता है| जब वह रास्ते में जाता है तो उसके मन तथा आंखों से रानी की तस्वीर ओझल नहीं होती है| वह हम समय उनकी याद में खोया हुआ रहता है| तभी वह आधे रास्ते से रानी के लिए एक पत्र लिखता है :-

“ हे प्रिय! तुम मेरी अर्धांगिनी हो, तुम मुझे भूल मत जाना| मैं शीघ्र ही तुम्हारे पास आऊंगा| हो सके तो कोई निशानी मेरे लिए भेज देना, जिसे देखकर मेरा मन हल्का हो जाए|”

 जब यह पत्र रानी हाड़ी को मिलता है तो उन्हें अपने पति कोमो में डूबा देकर मन व्यथित होता है| वह मन ही मन विचार करती है कि अगर सरदार मेरे मोह में वशीभूत होकर युद्ध करेंगे तो वह अपनी मातृभूमि  के प्रति पूरी तरह दायित्व का निर्वाह नहीं कर पाएंगे| रानी ने अपने सेवक को बुलाया और एक पत्र लिखा :-

“ प्रिय सरदार! मैं आपको तोफे में सबसे अच्छी लगने वाली निशानी भेज रही हूं| इसे स्वीकार करना| मैं आपकी प्रतीक्षा स्वर्ग में करूंगी|”

 रानी ने अपने सेवक को आदेश दिया कि आप मेरे पत्र तथा भेट को सरदार तक बिना किसी को दिखाये पहुंचाना और हाड़ी रानी ने अपने कमर से तलवार खींच कर एक ही झटके में सिर को काट डाला| उसे थाली में रखकर सेवक को सरदार के पास भेज दिया| सरदार सेवक को आता देख अत्यधिक प्रसन्न होता है और सोचता है कि रानी ने मेरे लिए कोई अनुपम वेट और पत्र भेजा है| जैसे ही वह पत्र पड़ता है और थाली से कपड़े को हटाता है| वह बहुत दुखी होता है और मन ही मन पश्चाताप करता है कि मेरे जीवन की सबसे सुंदर चीज को मोह के कारण गवा दिया|

 अब यह सब देख कर सरदार का रानी से मोहभंग हो गया| अंबे रानी के सर को अपने गले में बांध कर युद्ध में शत्रु सेना पर टूट पड़ता है|  वह इतनी बहादुरी से युद्ध करता है कि शत्रु सेना भाग खड़ी होती है| उसके युद्ध कला को देख कर आज तक इतिहास में उनके ससमान सोने की मिसाल मिलना संभव नहीं है|

 अंत में जब विजय हाथ लग गई तो उन्होंने अपनी तलवार से अपना सर रानी की भांति काटकर प्राणोत्सर्ग  कर दिया| यह जीत सीधे शब्दों में हाड़ी रानी के त्याग और बलिदान का प्रतीक है| रानी के विचारों नें ही चुंडावत सरदार को युद्ध लड़ने के लिए प्रेरित किया| उन्हीं के त्याग के कारण हाडी रानी इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में अंकित हो गई| और उनका यह मातृभूमि का का बलिदान हमेशा याद किया जाएगा| इसलिए सच ही कहा गया है नारी अवला नहीं सबला है अगर वह करने की ठान ले|

 

धाय माँ गोरा टांक

 

 

 

राजस्थान की बलिदानी भूमि को अगणित वीर- वीरांगनाओ ने इस मिट्टी को अपने खून से सींचा है, इसमें कोई दो राय नहीं है | अगर इतिहास की बात करें तो अपने बच्चे को मातृभूमि की रक्षा के लिए बलिदान करने वाली मां पन्ना धाय का नाम सर्वप्रथम लिया जाता है | लेकिन इसी ही मरुभूमि में एक और धाय माँ ‘गोरा टांक’ भी हुई है | जिसने मां पन्ना की तरह अपने पुत्र को राजगद्दी के लिए न्योछावर कर दिया |

सन 1678 ई. में मारवाड़ पर महाराजा जसवंतसिंह का शासन था | उस समय दिल्ली के तख्त पर औरंगजेब का शासन था | महाराज जसवंत सिंह औरंगजेब की ओर से काबुल गए हुए थे| उनके साथ मारवाड़ी वीर दुर्गादास, अन्य सहयोगी, विश्वसनीय धाय माँ गोरा टांक तथा उनकी रानियां भी थी |

लेकिन एक दुखद घटना ऐसी घटी कि 28 नवंबर 1678 ई. को महाराजा जसवंत सिंह का देहांत हो गया | इस घटना के बाद मारवाड़ी वीर तथा उनके साथी और गर्भवती रानियां सहित लाहौर आ गये |

कुछ समय पश्चात महाराज जसवंत सिंह की रानियां जादम जी तथा रानी नरूकी ने 19 फरवरी 1679 को पुत्रों को जन्म दिया | रानी जादम जी के पुत्र का नाम अजीत सिंह तथा रानी नरुकी के पुत्र का नाम थँबन था | इनकी देखभाल करने के लिए ‘ गोरा टांक’ को नियुक्त किया गया | इसके बाद औरंगजेब के द्वारा इन्हें लाहौर से मारवाड़ी वीरो सहित रानियों को दिल्ली बुला लिया गया | कुछ सप्ताह पश्चात दल थंबन की मृत्यु हो गई | और मारवाड़ी वीरों ने महाराजा अजीत सिंह को मारवाड़ का  उत्तराधिकारी घोषित करने के लिए औरंगजेब से आग्रह किया | लेकिन औरंगजेब  की नियत में खोट होने के कारण उन्होंने अपने सैनिकों को आदेश देकर पूरी हवेली को घेर लिया, जहां पर मारवाड़ी वीर तथा अजीत सिंह थे |

मारवाड़ी  वीर दुर्गा दास तथा उसके सहयोगी की सूझबूझ से महाराजा अजीत सिंह को दिल्ली से मारवाड़ ले जाने की योजना बनाई गई | जिसके लिए  गोरा टांक को महाराजा अजीत सिंह को सकुशल दिल्ली की हवेली से बाहर निकालने का कार्य दिया गया| गोरा टाक ने सफाई वाली का भेष बनाकर, सिर पर टोकरे में महाराजा अजीत सिंह को लिटाकर हवेली से बहार ले आई | बाहर सपेरे के भेष में खड़े मुकुंददास खींची को महाराजा अजीत सिंह को दे दिया | और मुकुंददास महाराजा अजीत सिंह को दिल्ली से मारवाड़ ले आया | इधर गोरा टांक ने अपने पुत्र को महाराजा अजीत सिंह के कपड़े पहना कर लेटा दिया |

महाराजा अजीत सिंह का लालन-पालन गोरा टांक के द्वारा किया गया | उधर औरंगजेब के सामने गोरा टांक के बेटे को दिखाया गया जोकि 1688 ईस्वी में प्लेग महामारी की चपेट में आकर मृत्यु को प्राप्त हो गया |

इतिहास में मां पन्ना के बलिदान को पुनः गोरा टाक ने दोहराया | उसका यह बलिदान मारवाड़ की राजगद्दी के प्रति कर्तव्य निष्ठा व स्वाभिमान को दर्शाता है कि जिसने अपने दूध मुहे बच्चे को काल के गाल में समाहित कर दिया | 20 मई 1704 को गोरा टांक के पति की मृत्यु होने पर, गोरा टाक ने अपने पति के साथ अग्नि स्नान कर लिया | उनकी याद में महाराजा अजीतसिंह ने 6 खंभों की छतरी बनवाई | गोरा टांक का यह बलिदान मारवाड़ के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों से लिखा गया |