शिवा ‘स्वयं’
अपनी जन्मभूमि को नमन करने,
हम शब्दों की भेंट लाये हैं !
पिरो दिया है स्याही में अंतर्मन की ज्वाला को,
हम पावन अपनी धरती माँ का
वंदन करने आये हैं
अपने आप को पाने के लिए ही तो सारी जद्दोजहद है ! जीवन का सदुपयोग हो सके, हम वो बन सके जैसा बन कर लगे कि हाँ, अब अंदर सुकून है ! पर ऐसा तो कुछ भी करके होता नहीं ! मृग तृष्णा है भीतर, बस केवल बढ़ती ही जाती है !
मिट्टी से अब खुश्बू आती नहीं है, घरों में मार्बल सजा कर उसमें से खुश्बू अनुभव करने की कोशिश कर रहे हैं हम सब !
ऐसा भी कहीं होता है ?
क्योंकि हम वस्तुओ से खुद को भर कर, वास्तव में खाली कर रहे हैं ! भरना है तो विचारों को भरो, जो हमें एक दिन पूरा तो करेंगे ! नहीं तो संभवतः हमारी पूंजी में हीरे मोती नहीं कंकड़ पत्थर ही रह जायेंगे !
एक पवित्र प्रेरणा का हाथ पकड़ कर चलो जो इस तरह साथ होती है जैसे माँ की ऊँगली थाम कर चलना, वो जो हमेशा कोमल रास्तो पर चलना नहीं सिखाती, वो तो उबड़ खाबड़ रास्तों का निर्माण खुद ही करती है कि उसके बच्चे को उन रास्तों पर चलना आ जाये ! वो सिखाती है कि हज़ार बार भी गिरो तो कोई बात नहीं मगर हौसला एक बार भी गिरने मत देना !
वो भरोसा सिखाती है,
अवगुणों से भरे हम, यदि जीवन में गुण जोड़ लें तो यह चिरस्थाई संपत्ति होगी, जिससे सच्चा श्रृंगार सम्भव हो जाता है !
हम बहुत मेहनत से कमाते हैँ, अपने जीवन कों सजाते हैँ अच्छे कपड़ो से, बड़ी गाड़ी से, महंगे समानों औऱ आलीशान घरों से ! कमाई एक तो बाहर के लिए होती है जो जीवन का बाहरी रंग सुन्दर कर देती है लेकिन इस बाहर कों सजाने की दौड़ में अंदर से सुंदरता तो दूर की बात है अंदर की तो गन्दगी तक साफ नहीं हो पाती –
किसी गायक की कही पंक्तियाँ हैँ कि -
क्यों पानी में मल मल नहाये
मन की मैल उतार ओ प्राणी..
दिन रात परिश्रम करके हम चमकने वाली चीज़े तो खरीद लेते हैँ लेकिन व्यक्तित्व के रंग को तो काला ही कर देते हैँ - घृणा, प्रतिस्पर्धा, जलन, लोभ इतने विकार भर जाते हैँ हम में औऱ हम उनको अपने अंदर की कुरूपता नहीं मानते बल्कि हम इन विकारों के साथ जीने के इतने आदि हो जाते हैँ कि व्यक्तित्व में इन सब बातों को हम सहज़ मानने लगते हैँ !
समझना तो इस बात को पड़ेगा कि जिस तरह ऊपर से चमकने के लिए कुछ देर के लिए मेकअप किया जा सकता है लेकिन स्थाई चमक के लिए अच्छा स्वास्थ्य चाहिए उसी तरह अपने भीतर स्वस्थ विचारों को रख कर ही हम स्वयं अपने विस्तार को पा सकते हैँ, अन्यथा नहीं !’इसी उद्देश्य की प्राप्ति की ओर यह पहला कदम....
हम शब्दों की भेंट लाये हैं !
पिरो दिया है स्याही में अंतर्मन की ज्वाला को,
हम पावन अपनी धरती माँ का
वंदन करने आये हैं
अपने आप को पाने के लिए ही तो सारी जद्दोजहद है ! जीवन का सदुपयोग हो सके, हम वो बन सके जैसा बन कर लगे कि हाँ, अब अंदर सुकून है ! पर ऐसा तो कुछ भी करके होता नहीं ! मृग तृष्णा है भीतर, बस केवल बढ़ती ही जाती है !
मिट्टी से अब खुश्बू आती नहीं है, घरों में मार्बल सजा कर उसमें से खुश्बू अनुभव करने की कोशिश कर रहे हैं हम सब !
ऐसा भी कहीं होता है ?
क्योंकि हम वस्तुओ से खुद को भर कर, वास्तव में खाली कर रहे हैं ! भरना है तो विचारों को भरो, जो हमें एक दिन पूरा तो करेंगे ! नहीं तो संभवतः हमारी पूंजी में हीरे मोती नहीं कंकड़ पत्थर ही रह जायेंगे !
एक पवित्र प्रेरणा का हाथ पकड़ कर चलो जो इस तरह साथ होती है जैसे माँ की ऊँगली थाम कर चलना, वो जो हमेशा कोमल रास्तो पर चलना नहीं सिखाती, वो तो उबड़ खाबड़ रास्तों का निर्माण खुद ही करती है कि उसके बच्चे को उन रास्तों पर चलना आ जाये ! वो सिखाती है कि हज़ार बार भी गिरो तो कोई बात नहीं मगर हौसला एक बार भी गिरने मत देना !
वो भरोसा सिखाती है,
अवगुणों से भरे हम, यदि जीवन में गुण जोड़ लें तो यह चिरस्थाई संपत्ति होगी, जिससे सच्चा श्रृंगार सम्भव हो जाता है !
हम बहुत मेहनत से कमाते हैँ, अपने जीवन कों सजाते हैँ अच्छे कपड़ो से, बड़ी गाड़ी से, महंगे समानों औऱ आलीशान घरों से ! कमाई एक तो बाहर के लिए होती है जो जीवन का बाहरी रंग सुन्दर कर देती है लेकिन इस बाहर कों सजाने की दौड़ में अंदर से सुंदरता तो दूर की बात है अंदर की तो गन्दगी तक साफ नहीं हो पाती –
किसी गायक की कही पंक्तियाँ हैँ कि -
क्यों पानी में मल मल नहाये
मन की मैल उतार ओ प्राणी..
दिन रात परिश्रम करके हम चमकने वाली चीज़े तो खरीद लेते हैँ लेकिन व्यक्तित्व के रंग को तो काला ही कर देते हैँ - घृणा, प्रतिस्पर्धा, जलन, लोभ इतने विकार भर जाते हैँ हम में औऱ हम उनको अपने अंदर की कुरूपता नहीं मानते बल्कि हम इन विकारों के साथ जीने के इतने आदि हो जाते हैँ कि व्यक्तित्व में इन सब बातों को हम सहज़ मानने लगते हैँ !
समझना तो इस बात को पड़ेगा कि जिस तरह ऊपर से चमकने के लिए कुछ देर के लिए मेकअप किया जा सकता है लेकिन स्थाई चमक के लिए अच्छा स्वास्थ्य चाहिए उसी तरह अपने भीतर स्वस्थ विचारों को रख कर ही हम स्वयं अपने विस्तार को पा सकते हैँ, अन्यथा नहीं !’इसी उद्देश्य की प्राप्ति की ओर यह पहला कदम....